Sunday 22 October 2017

ए हवा

ए हवा जरा इतना बता,
तू क्या कहती है,
जो लहू वो बहता है सरहद पर,
तू क्या नहीं उसे डरती है,
आखिर है वो घर तेरा,
जिसे वो बचा रहे,
सैनिक ही तो है, जो अपनी जान गवा रहे,
एक घर जो वो बचा रहे ,
एक घर जो वो उजाढ रहे,
आखिर किसी का लाल ही है जो क़ुर्बान हो रहे है,
एक घर सरहद के इस पार भी है,
एक घर सरहद के उस पार भी है,
जहां पर किसी की बूढ़ी माँ - तो किसी का बूढ़ा बाप,
भी अपने लाल की राह देख रहे है,
आँखे उनकी भी तरसती है,
तो कोई पापा कहने को भी तरस्ता है,
एक घर सुना वो भी होता है,
हवा तू क्यूं नहीं उन्हें बताती हैं,
मजहब तो तेरा कोई नहीं है,
तो उन्हें क्यू नहीं समझाती है,
तू वो पैगाम दे उन्हें जो बैठे खूर्सी पे जंग का एलान कर रहे,
पूंछ उनको उनके लाल के बारे में,
क्या कापती नहीं रूह उनकी लाल की मौत से,
जब दिवाली का दीपक जलता है,
तो कही किसी घर का चिराग भुजता है,
जब होली का रंग खेलते है,
तो कोई लहू से भी खेलता है,
तो कही किसी घर में कोई विधवा भी होता है,
वो घर भी त्यौहारों पे अपनों को दूंद्ता है,
सरहद पर तो मेरा जवान ही मरता है,
ए हवा जरा इतना बता,
क्यू तू चिंगारी को हवा देती है,
तू क्यू मज़हब के नाम पर लड़ने देती है,
तू क्यू नहीं थम थी जब आग लगती है,
तू चिराग भी भुजा देती है तू आग भी लगा देती है,
तू एक घर की फिर से याद दिलाती है,
जहाँ अक्सर गोली की चिक सुनाई देती है,
तू उन माँ और बाप की फिर आस तोड़ जाती है,
ए हवा तेरी कोई सरहद नहीं,
तो उस पार भी अमन और चैन का पैगाम पहुंचाती क्यू नहीं..!!